रविवार, 5 जुलाई 2020

दस बरस की बच्ची



वह बीस की उम्र में कुछ कमाल का कर लेना चाहती थी
उसने अठारह में ही पढ़ ली थीं दुनिया के महान मनुष्यों की जीवनियां
एक के बाद एक न जाने कितनी योजनाएं उसने बनाईं और रद्द करी
मगर वह कर पाई बेहद साधारण काम
जैसे-शादी, रसोई, बच्चे, परवरिश, नौकरी, पैसा...

अब वह पैंतीस की है
और भविष्य के सपनों से अधिक अतीत की स्मृतियों में खोई रहती है

कामयाब होने से अधिक अब उसकी रुचि उन अंडों को फिर से देखने में हैं
जिनसे वह बचपन में बच्चे निकलते हुए देखना चाहती थी
या उन वृक्षों में जिन पर चढ़कर फल खाना वह कभी नहीँ सीख पाई
या बरसात के उस खेल में जिसमें राम की बिल्लियाँ पकड़ने की प्रतियोगिता आयोजित की जाती थी

हालांकि अभी वह उम्र से पाँच बरस कम ही लगती है
फिर भी हर रात सोते समय वह ख़ुद से पूछती है
क्या वह बूढ़ी हो गई है ?

इस सवाल का जवाब बहुत सकारात्मक देने के बाद भी वह जानती है
कि वह हर दिन बूढ़ी हो रही है
उसे अब अपना जन्मदिन हतोत्साहित करता है
अब वह जन्मदिन, शादी की सालगिरह और उत्सव पर मिले उपहार देखकर भी ख़ुश नहीँ हो पाती

अक्सर देर रात तक जागते-जागते वह सो जाती है
उसे कभी-कभार नींद में वह लड़का नज़र आता है जिसने उसे बचपन में साईकिल सिखाई थी
वह उस लड़के के सामने ख़ुद को फूट-फूट कर रोते हुए देखती है
वह देखती है रोते हुए वह दस बरस की बच्ची लग रही है।

चुम्बन



मैं आज शाम को बिलकुल फ्री हूँ, आओगी मिलने?

मैंने चाची से मिन्नतें की
वो जानती थीं, तुम मेरे होने वाले शौहर हो
तो मान गईं

मैंने पर्स उठाया, ठीक-ठाक कपड़े पहनें, ऑटो बुक किया और पार्क के गेट पर पहुँच गई
तुम गेट पर ही खड़े थे ...

तुम्हारे बगल मैं एक मूँगफली बेचने वाला दस-बारह साल का लड़का खड़ा था
जो तुमसे बार-बार मूँगफली खरीदने का निवेदन कर रहा था
मेरे कहने पर तुमने 10 रुपये की मूँगफली तुलवा ली

हम पार्क मैं बैठे रहे
बैठे-बैठे मूँगफली छीलते रहे

मैं मुस्कराती रही , तुम हँसते रहे
मैं किस्से सुनाती रही,तुम किस्से सुनते रहे
फिर अचानक से तुमने मुझे चूम लिया
मैं अँगुली से मिट्टी खोदने लगी...

फिर न जाने किस उम्मीद में, मैं उठकर ओट में आ गई
फिर हम दोनों एक-दूसरे को आलिंगन में भरकर चूमने लगे

तभी एक लड़का आया
उसके चेहरे पर घृणा का भाव था
'ये सब यहां नहीँ चलेगा'

तुम सकपका गए
मैं डर गई...
तुमने लड़के से कहा 'सॉरी'

पाँच मिनट पहले मुझे पता चला था 'चुम्बन किसे कहते हैं'
पाँच मिनट बाद मुझे पता चला  'चुम्बन लेना ज़ुर्म है'

मैं मुंडी नीचे झुकाए पार्क से बाहर आ गई...
मेरे बदन पर कपड़े थे पर यूं लगा जैसे मैं बिलकुल नंगी हूँ

मेरे कानों में तुम्हारी कोई आवाज़ नहीँ आई...
महीनों तक कैसेट की तरह कानों में बस यही बजता रहा
ये सब यहां नहीँ चलेगा...

तुम फोन पर फोन करते रहे
मैं फ़ोन काटती रही...

तुमने मैसेज किया
'सॉरी! हम जल्दी शादी कर लेंगे'

फिर हमारी शादी हो गई
हमारे हिस्से में एक बिस्तर और एक छोटा-सा कमरा आ गया

काम से थके-ऊबे हम कमरे में आते तो मैं रोशनी बुझा देती
आहिस्ता-आहिस्ता तुम्हारे होंठ मेरे होंठो की तरफ़ बढ़ते
तभी वह लड़का मेरे कानों में जोर से चीखता
ये सब यहाँ नहीँ चलेगा!

उस अनजान लड़के ने सिर्फ़ एक वाक्य बोलकर
उस एहसास को कुचल दिया
जिससे मैं ज़िंदगीभर चुम्बन लेती और देती...

नेहा नरूका

बुधवार, 4 सितंबर 2019

मर्द बदलने वाली लड़की

मैं उन लड़कियों में से नहीं
जो अपने जीवन की शुरूआत
किसी एक मर्द से करती है
और उस मर्द के छोड़ जाने को
जीवन का अंत समझ लेती हैं
मैं उन तमाम सती-सावित्रीनुमा
लड़कियों में से तो बिल्कुल नहीं हूं

मैंने अपने यौवन के शुरूआत से ही
उम्र के अलग-अलग पड़ावों पर
अलग-अलग मानसिकता के
पुरुष मित्र बनाए और छोड़े हैं
हरेक मित्र के साथ
मैंने बड़ी शिद्दत से निभाई है दोस्ती

यहां तक कि कोई मुझे उन क्षणों में देखता
तो समझ सकता था
राधा, अनारकली और हीर-सी कोई रूमानी प्रेमिका

इस बात को स्वीकार करने में मुझे
न तो किसी तरह की लाज है
न झिझक
बेशक कोई परंपरारावादी मुझे कह दे
छिनाल, त्रिया चरित्र या कुलटा वगैरह-वगैरह

चूंकि मैं मर्द बदलने वाली लड़की हूं
इसलिए तथाकथित सभ्य समाज के खांचे में
लगातार मिसफिट होती रही हूं
पतिव्रता टाइप लड़कियां या पत्नीव्रता लड़के
दोनों ही मान लेते हैं मुझे ‘आउटसाइडर’
पर मुझे इन सब की जरा भी परवाह नहीं
क्योंकि मैं उन लड़कियों में से नहीं
आलोचना और उलहाने सुनते ही
जिनके हाथ-पैर कांपने लगते हैं
बहने लगते हैं हजारों मन टेसूए
जो क्रोध को पी जाती हैं
प्रताड़ना को सह लेती हैं
और फिर भटकती हैं इधर-उधर
अबला बनकर धरती पर

चूंकि मैं मर्द बदलने वाली लड़की हूं
इसलिए मैंने वह सब देखा है
जो सिर्फ लड़कियों को सहेली बनाकर
कभी नहीं देख-जान पाती
मैंने औरत व मर्द दोनों से दोस्ती की
इस बात पर मुझे थोड़ा गुमान भी है
गाहे-बगाहे मैं खुद ही ढिंढोरा पिटवा लेती हूं
कि यह है ‘मर्द बदलने वाली लड़की’
यह लंबा चैड़ा वाक्य
अब मेरा उपनाम-सा हो गया है।

नेहा नरूका

बावरी लड़की

एक लड़की बावरी हो गयी है
बैठी-बैठी ललराती है
नाखूनों से
बालों से...,
भिड़ती रहती है
भीतर ही भीतर
किसी प्रेत से

चाकू की उलटी-तिरछी रेखाएं हैं
उसके माथे पर
नाक पर
वक्ष और जंघाओं पर
उभरे हैं पतली रस्सी के निशान

होंठों से चूती हैं
कैरोसीन की बूंदें
फटे वस्त्रों से
जगह-जगह
झाँकते हैं
आदमखोर हिंसा के शिलालेख

सब कहते जा रहे हैं
बाबरी लड़की
जरूर रही होगी
कोई बदचलन
तभी तो
न बाप को फिकर
न मातारी को
सुनी सुनाई
पते की बात है
लड़की घर से
भाग आयी थी



लड़का-लड़की चाहते थे
एक दूसरे को
पर यह स्वीकार न था
गांव की पंचायतों को
सो लड़का, लड़की को एक रात
भगाकर शहर ले आया

बिरादरी क्या कहेगी सोचकर
बाप ने फांसी लगा ली
मातारी कुंडी लगा के पंचायत में
खूब रोई
बावरी लड़की पर

पटरियों...ढेलों से होती हुई
लड़की मोहल्लों में आ गई
रोटी मांग मांग कर पेट भरती
ऐसे ही गर्भ मिल गया
बिन मांगी भीख में
बड़ा पेट लिए गली-गली फिरती
ईंट कुतरती

एक इज्जतदार से यह देखा न गया
एक ही घंटे  में पेट उसने
खून बनाकर बहा दिया
और छोड़ आया शहर से दूर
गंदे नालों पर
कचरा होता था जहाँ
सारे शहर का
कारखानों का
पाखनों  का
बावरी लड़की कचरा ही तो थी
सभ्य शहर के लिए
जिसमें घिन ही घिन थी

नाक छिनक ली
किस्सा सुनकर महाशयों ने
मालिकों-चापलूसों  ने
पंडितों-पुरोहितों ने
और अपने अपने घरों में घुस गये
बाहर गली में
बावरी लड़की पर कुछ लड़के
पत्थर फेंक रहे हैं
‘कहाँ से आ गयी यह गंदगी यहाँ’
हो.. हो.. हो.. हो...
बच्चे मनोरंजन कर रहे हैं
जवान  और  बूढ़े भी

खिड़कियां और रोशनदान बंद  कर

कुलीन घरों की लड़कियां
वापस अपने काम में जुट गईं

‘अरे भगाओ इसे-
जब तक यह...
यहां अड़ी बैठी रहेगी
तमाशा होता रहेगा’
एक अधेड़ सज्जन ने कहा..
पौधों में पानी दे रही उनकी बीबी
नाक-भौं सिकोड़ने लगी
‘कौन भगाए इस अभागिन को’

लड़की बावरी
खुद ही को देख देख के
हँस रही है
खुद ही को देख देख के
रोती है
सेकेंड दो सेकेंड
चेहेर के भाव बदलते हैं
गला फाड़ कर पसर जाती है
गली में ही
जानवरों की तरह
बावरी लड़की...

नेहा नरूका

चोर

उसे लगता है
वह एक चोर है
जो रहती है हरदम
एक एक नई चोरी की फिराक में
जब भी वह अपने शरीर को गहने
फैशन-एसेसरीज से सजाती है
मेकअप में लिपे-पुते होंठ
आंख, गाल, माथा और नाखून
उसे बेमतलब ही
चोर नजर आते हैं
उसे लगता है
वह छिपाए फिरती है
इन सब में
‘कुछ’

उसे लगता है
घर में
कालोनी में
शहर में हर कहीं
सभी उसके पीछे पड़े हैं
क्या वाकई वह कोई चोरी कर रही है
उसे तो अमूमन यही लगता है
कि उसका भाई जो उसे टोकता है
पड़ोसी जो उसे देखता है
मां जो उसे डांटती है
बहन जो उसे घूरती है
ये सब उसे चोर समझते हैं

उसके पर्स में
किताब में ...
जो रखा है
उसकी डायरी में जो लिखा है
उसमें मन में जो घूमता है
यह सब चोरी का सामान
कहीं  कोई  देख  न ले
पढ़  और समझ न  ले

उसे लगता है
समाज की मान्यताओं को नकार कर
लगातार चोरी कर रही है
और ...
सजा से बचने के लिए
कभी-कभी वफादारी का दिखावा कर लेती है
फिर भी उसे महसूस होता है
आज नहीं कल ये सब लोग
कोई न कोई सजा तय करेंगे उसके लिए

नहीं वह नहीं जिएगी
तयशुदा घेरे में बंधकर
चोर की अपनी सीमा होती है
वह सोचती है
उसे तो ‘बागी’ होना पड़ेगा।

नेेहा नरूका

नाच



नाच  तू  बावरी,
नाच,
आज सुहागरात!
कदमों को थिरका
नाच,
ता था थैया.......
मुख से कह कि मुस्कराए
नैन से कह कि मटके
हया को कह ‘चल भाग’
घुघंरू से कह
छम छम छम बजें  रातभर

परदेश से
पिया आंगन में पधारा है
उसने आदेश भिजवाया है

कोठरी  में जाकर
मांग काढ़
सींक से सिंदूर भर

पूर दे...
केशों के बीच
एक सीधी लकीर
जितना दूर तक पूरेगी
उतनी लंबी होगी पिया की उमर

कोहनी तक हाथ भरके
चूड़ी पहन
कर
खन खन खन
नाक में नथ पहन,
गले में हार डाल,
कमर में करधनी बाँध

पैर व हाथ की अँगुलियों में
कस ले बिछुए-अँगूठी

पलंग पर सफ़ेद चादर बिछा
रात में जब पिया
कौमार्य भंग करेगा तेरा
चादर पर लाल धब्बा पड़ेगा
तू चीखना मत गवाँर
कदम, नैन,  घूंघरू, चूड़ी,  नख, होंठ
सबको कह देना
चुप्प!
बाहर आँगन में सो रहे
सास-ससुर जाग जाएँगे
वे जाग गए तो
लाल धब्बे पिया की आंखों में
समा जाएँगे

उन्हें लेकर पिया
चला जाएगा परदेश
और फिर तू रह जाएगी कोरी
इसलिए तू नाच बावरी
तुझे संतुष्ट करना है पिया को
देर मतकर
नाच!!!

नेहा नरूका

मंगलवार, 3 सितंबर 2019

कविता और गणित के बीच में

मुझे एक ख़ूबसूरत कविता बटे बदसूरत ज़िंदगी या एक बदसूरत कविता बटे ख़ूबसूरत ज़िंदगी में से
किसी एक को चुनना था
मैं कलाकार थी तो मैंने खूबसूरत कविता लिखना वरदान समझा
मैंने समझा मैं कोई महान कवि हूँ
इस तरह एक कविता के लिए मैंने अपना जीवन दाँव पर लगा दिया
मेरे हमउम्र समुद्र के खारे पानी का आनंद ले रहे थे
और मैं भर रही थी उस वक्त आँख में नमक
वे अपने-अपने बच्चों को चूम रहे थे
मुझे बच्चों की किलकारी में भविष्य का रुदन सुनाई दे रहा था
वे सुबह की धूप में योग कर रहे थे
मैं देख रही थी सूरज में दोपहर की आग
मुझे सपने भी आने लगे
रंगहीन-गंधहीन-भंगुर
खूबसूरत कविता के सुख से
कहीं ज्यादा कष्टकर था
इस बदसूरत ज़िंदगी को जीना
दर्शन में मैं होशियार थी
व्याकरण में औसत
पर गणित में मैं बहुत बेकार सिद्ध हो चुकी थी।

 नेहा नरूका